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तेजः॑ पशू॒ना ह॒विरि॑न्द्रि॒याव॑त् परि॒स्रुता॒ पय॑सा सार॒घं मधु॑। अ॒श्विभ्यां॑ दु॒ग्धं भि॒षजा॒ सर॑स्वत्या सुतासु॒ताभ्या॑म॒मृतः॒ सोम॒ऽइन्दुः॑ ॥९५ ॥

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पद पाठ

तेजः॑। प॒शू॒नाम्। ह॒विः। इ॒न्द्रि॒याव॑त्। इ॒न्द्रि॒यव॒दिती॑न्द्रि॒यऽव॑त्। प॒रि॒स्रुतेति॑ प॒रि॒ऽस्रुता॑। पय॑सा। सा॒र॒घम्। मधु॑। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। दु॒ग्धम्। भि॒षजा॑। सर॑स्वत्या। सु॒ता॒सु॒ताभ्या॒मिति॑ सुतासु॒ताभ्या॑म्। अ॒मृतः॑। सोमः॑। इन्दुः॑ ॥९५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:95


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिन (सुतासुताभ्याम्) सिद्ध असिद्ध किये हुए (भिषजा) वैद्यक विद्या के जाननेहारे (अश्विभ्याम्) विद्या में व्याप्त दो विद्वान् (पशूनाम्) गवादि पशुओं के सम्बन्ध से (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त होनेवाले (पयसा) दूध से (तेजः) प्रकाशरूप (इन्द्रियावत्) कि जिसमें उत्तम इन्द्रिय होते हैं, उस (सारघम्) उत्तम स्वादयुक्त (मधु) मधुर (हविः) खाने-पीने योग्य (दुग्धम्) दुग्धादि पदार्थ और (सरस्वत्या) विदुषी स्त्री से (अमृतः) मृत्युधर्मरहित नित्य रहनेवाला (सोमः) ऐश्वर्य्य और (इन्दुः) उत्तम स्नेहयुक्त पदार्थ उत्पन्न किया जाता है, वे योगसिद्धि को प्राप्त होते हैं ॥९५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे गौ के चरानेवाले गोपाल लोग गौ आदि पशुओं की रक्षा करके दूध आदि से सन्तुष्ट होते हैं, वैसे ही मन आदि इन्द्रियों को दुष्टाचार से पृथक् संरक्षण करके योगी लोगों को आनन्दित होना चाहिये ॥९५ ॥ इस अध्याय में सोम आदि पदार्थों के गुण वर्णन करने से इस अध्याय के अर्थ की पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतपरमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानदसरस्वतीस्वामिना विरचिते सुप्रमाणयुक्ते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते यजुर्वेदभाष्ये एकोनविंशोऽध्यायः समाप्तिमगमत् ॥१९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(तेजः) प्रकाशः (पशूनाम्) गवादीनां सकाशात् (हविः) दुग्धादिकम् (इन्द्रियावत्) प्रशस्तानि इन्द्रियाणि भवन्ति यस्मिन् (परिस्रुता) परितः स्रवन्ति प्राप्नुवन्ति येन तत् (पयसा) दुग्धेन (सारघम्) सुस्वादुयुक्तम् (मधु) मधुरादिगुणोपेतम् (अश्विभ्याम्) विद्याव्यापिभ्याम् (दुग्धम्) पयः (भिषजा) वैद्यकविद्याविदौ (सरस्वत्या) विदुष्या स्त्रिया (सुतासुताभ्याम्) निष्पादिताऽनिष्पादिताभ्याम् (अमृतः) मृत्युधर्मरहितः (सोमः) ऐश्वर्यम् (इन्दुः) सुस्नेहयुक्तः ॥९५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! याभ्यां सुताऽसुताभ्यां भिषजाऽश्विभ्यां पशूनां परिस्रुता पयसा तेज इन्द्रियावत् सारघं मधु हविर्दुग्धं सरस्वत्यामृतः सोम इन्दुश्चोत्पाद्यते, तौ योगसिद्धिं प्राप्नुतः ॥९५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा गोपा गवादीन् पशून् संरक्ष्य दुग्धादिना संतुष्यन्ति, तथैव मनआदीन्द्रियाणि दुष्टाचारात् पृथक् संरक्ष्य योगिभिरानन्दितव्यमिति ॥९५ ॥ अत्र सोमादिपदार्थगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वाध्यायार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. गुरे राखणारे गुराखी जसे गाईंचे रक्षण करून दुधाने संतुष्ट होतात. तसे योग्यांनी मन इत्यादी इंद्रियांना दुष्ट आचरणापासून पृथक ठेवून आनंदित राहावे.